महाभारत की पूरी कहानी (कथा) | Mahabharat Full Story in Hindi

महाभारत भारत के इतिहास की वो गाथा है। जो सदियों से हमारा मार्गदर्शन कर रही है और भविष्य में भी करती रहेगी। महाभारत धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य की वो कथा है जिसमें धर्म, सत्य और पुण्य की विजय का गुणगान किया गया है। यह विश्व का सबसे बड़ा ग्रंथ है, जिसमें 1,10,000 श्लोक है।

महाभारत भारत का धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। हिन्दू धर्म में इस पवित्र ग्रंथ को पांचवा वेद भी कहा गया है। विश्व का सबसे पवित्र ग्रंथ “श्रीमद भगवद्गीता” इसी महाकाव्य में समाहित है। भारत देश को भारत नाम देने वाले राजा की कहानी भी इस ग्रंथ का एक हिस्सा है।

महाभारत के रचयिता “श्री वेदव्यास” जी है। लेकिन महाभारत को वेदव्यास जी ने सिर्फ बोलकर सुनाया था। भगवान श्री गणेश ने वेदव्यास जी की वाणी को सुनकर इस महाकाव्य को लिखा था। वेदव्यास जी ने इस काव्यग्रंथ को 3 वर्ष के समय में पूरा किया था।

इस प्राचीन ग्रंथ में हर प्रकार का ज्ञान समाहित है, जिसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि शामिल है। महाभारत के अलावा इसके दो अन्य नाम भी है।

चूंकि इसमें सिर्फ भारतवंश के बारे में बताया गया है, इसलिए इसका दूसरा नाम “भारत” है। इस महाकाव्य में धर्म की अधर्म पर विजय को प्रदर्शित किया गया है, इसलिए इसे “जय संहिता” भी कहा जाता है।

महाभारत इतनी विशाल है कि इसे ऐसे समझाना बहुत मुश्किल है। लेकिन हमने अपनी कड़ी मेहनत से आपको इसे एक छोटे से प्रारूप में समझाने की कोशिश की है। अगर भूलवश कोई गलती हो जाती है तो आप इसे नजरंदाज कर सकते है। या हमें इसके बारे में बता सकते है।

यह महाकाव्य बहुत सारे भागों में बंटा हुआ है। इसलिए हम इसका एक क्रम से गुणगान करते है और इसकी गहराइयों को समझते है। राजा दुष्यंत से इसकी शुरुआत होती है, जो राजा भरत के पिता थे। भरत की माता का नाम रानी शकुंतला था।

महाभारत की पूरी कहानी | Complete Mahabharat Story in Hindi

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1. राजा दुष्यंत और रानी शकुंतला

भारत के इतिहास में कभी पुरू वंश का शासन हुआ करता था। इस पुरू वंश में एक महाप्रतापी राजा का जन्म हुआ, जिसका नाम राजा दुष्यंत था।

राजा दुष्यंत अपने समय के महान शासकों में से एक थे। राजा दुष्यंत बचपन से ही निडर और शूरवीर थे। उनका दयालु स्वभाव होने के कारण, उनके राज्य की प्रजा उनसे बहुत प्रेम करती थी।

एक बार की बात है, राजा दुष्यंत शिकार खेलने के लिए वन में गए। उस वन में एक महान महर्षि ‘कण्व’ का आश्रम था। राजा को जब इस बात का पता चला तो वो उनसे मिलने पहुँच गए। जब वो आश्रम में पहुंचे तो उन्हें एक बहुत ही सुंदर युवती दिखाई दी, जिसका नाम शकुंतला था।

राजा दुष्यंत को उनकी सुंदरता से मोह हो गया और उन्होंने शकुंतला से इसी वन में विवाह कर लिया। विवाह के कुछ समय बाद राजा दुष्यंत ने शकुंतला से अपने राज्य वापिस लौटने का आग्रह किया। लेकिन शकुंतला ने जाने से मना कर दिया। तो राजा दुष्यंत ने शकुंतला को अपनी एक अंगूठी प्रेम निशानी के रूप में दी।

राजा दुष्यंत के जाने के बाद रानी शकुंतला की कोख से एक सुंदर बालक ने जन्म लिया। महाराजा दुष्यंत और रानी शकुंतला ने उस बालक का नाम भरत रखा। जो आगे जाकर एक महान प्रतापी सम्राट बना।

2. राजा भरत

भरत अपने माता-पिता के सबसे प्रिय पुत्र थे। भरत को शेरों के साथ खेलने का बड़ा शौक था, वो अक्सर वन में शेरों के पास जाया करते थे। राजा भरत के नाम से ही इस देश का “भारत” नाम पड़ा।

राजा भरत के बड़े होने पर उनके पिता ने उनको सिंहासन सौंप दिया। राजा भरत महाभारत काल के 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में से एक थे। राजा भरत के 9 पुत्र हुए, जो अपने पिता की तरह शूरवीर नहीं थे।

इसलिए राजा भरत ने अपने पिता के वचन को याद करते हुए एक अच्छे नौजवान की तलाश शुरू की। उनके पिता चाहते थे कि भरत तुम अपनी प्रजा को प्राणों से भी ज्यादा प्रेम करना।

अपने पिता के वचन को निभाने के लिए राजा भरत ने अपने पुत्र प्रेम को त्याग दिया। राजा भरत ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में “भुमंयु” को चुना, जो एक साधारण नौजवान था। लेकिन भुमंयु ने भरत के विश्वास को कभी नहीं तोड़ा और एक अच्छे राजा की तरह शासन किया।

इसके बाद भुमंयु के पुत्र सुहोत्रा ने शासन किया। सुहोत्रा के बाद उनके पुत्र राजा हस्ती ने राज-पाट संभाला और राजा हस्ती ने ही हस्तिनापुर की स्थापना की।

इसके बाद एक-एक करके अनेक राजाओं ने इस हस्तिनापुर के सिंहासन पर शासन किया। इन्हीं राजाओं में से एक राजा कुरु हुए। कुरु के नाम पर ही कुरुवंश की नींव रखी गई।

फिर कुरुवंश में अनेक राजाओं ने शासन की बागडोर संभाली। फिर इसी वंश में शांतनु ने जन्म लिया, राजा शांतनु से ही महाभारत की शुरुआत होती है।

3. राजा शांतनु

राजा शांतनु एक महान और बुद्धिमान शासक थे। इन्होंने अपनी बुद्धि और बहादुरी से हस्तिनापुर के सिंहासन को बहुत अच्छे से संभाला। शांतनु को बचपन से ही आखेट का शौक था। वो अक्सर वन में शिकार करने के लिए जाते थे।

एक दिन शांतनु शिकार के लिए वन में गए, वहाँ उन्होंने एक बहुत ही सुंदर हिरण देखा। राजा शांतनु उस हिरण का पीछा करते हुए घने वन में चले गए। जहाँ उन्होंने गंगा नदी के किनारे एक सुंदर युवती को देखा। राजा शांतनु उस युवती के सौन्दर्य से मन्नमुग्ध हो गए।

उन्होंने जब उस युवती से उसका नाम पूछा तो उसने बताने से मना कर दिया। राजा ने कहा कि मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। तो उस युवती ने कहा कि आप कभी भी मेरा नाम और मेरे से कोई प्रश्न नहीं पुछोगे। अगर आप ऐसा वादा करते है तो मैं आपसे विवाह करने के लिए तैयार हूँ।

इसके बाद वो उस युवती को हस्तिनापुर ले आए और उसका नाम गंगा रखा। क्योंकि वो उन्हें गंगा किनारे मिली थी। हालांकि अनजाने में रखा गया उनका यह नाम असली था। गंगा और राजा शांतनु के 8 पुत्र हुए। जिनमें से उनका 8वां पुत्र देवव्रत था।

4. राजा शांतनु का पुत्र देवव्रत

रानी गंगा अपने 8वें पुत्र के जन्म के बाद हस्तिनापुर छोड़कर चली गई। साथ ही वो अपने पुत्र देवव्रत को भी साथ ले गई। क्योंकि भूलवश एक दिन शांतनु ने अपने वचन को तोड़कर गंगा से एक प्रश्न पूछ लिया था। इसके बाद शांतनु उदास रहने लगे। वो अक्सर गंगा किनारे जाया करते थे, ताकि मन को शांति मिल सके।

एक दिन शांतनु के दरबार में एक सिपाही भागता हुआ आया, उस सिपाही ने कहा कि एक नौजवान अपने तीरों की ताकत से गंगा के प्रवाह को रोकने का प्रयास कर रहा है। राजा अपने सैनिकों के साथ उस नौजवान के पास पहुंचे। जो उनका ही पुत्र देवव्रत था, जिसे गंगा लौटाने आई थी।

देवव्रत ने भगवान परशुराम से विद्या ग्रहण की थी। इसलिए उन्हें अपने गुरु और माता से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। वो कभी भी युद्ध में नहीं हार सकते और मृत्यु तब तक उनका मार्ग नहीं रोक सकती, जब तक वो खुद नहीं चाहते। यानी देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।

5. देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा

राजा शांतनु अपने पुत्र को पाकर बहुत खुश थे। उन्होंने अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। देवव्रत अपने पिता की सेवा में मग्न रहने लगा और वो अपनी प्रजा की भलाई करने लगा। प्रजा भी अपने नए उत्तराधिकारी से बहुत खुश थी। इस तरह 4 वर्ष बीत गए।

एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के किनारे घूमने गए, तब उन्हें वहाँ एक अप्सरा जैसी सुंदर युवती दिखी। उस सुंदरी को देखकर राजा का मन प्रफुल्लित हो गया। उन्होंने उससे उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम सत्यवती बताया। राजा ने तुरंत ही सत्यवती को खुद के साथ विवाह करने के लिए कहा।

लेकिन सत्यवती ने यह कहकर मना कर दिया कि वो अपने पिता की आज्ञा के बिना किसी से विवाह नहीं करेगी। जब राजा शांतनु ने सत्यवती के पिता से विवाह के लिए अनुरोध किया तो उसके पिता ने राजा से एक वचन मांगा। राजा ने तुरंत निर्णय लिया कि वो इस वचन को पूरा करेंगे लेकिन पहले वचन को जानेंगे।

तो सत्यवती के पिता ने कहा कि महाराज आपको हस्तिनापुर का अगला उत्तराधिकारी सत्यवती के पुत्र को बनाना होगा। राजा शांतनु अब गहरी चिंता में डूब गए और अपने महल वापिस आ गए। शांतनु का मन अभी भी सत्यवती पर मोहित था, इसलिए वो उसे याद करके उदास रहने लगे।

अपने पिता को इस तरह उदास देखकर देवव्रत ने अपने पिता की उदासी का कारण जाना। शांतनु के सारथी ने देवव्रत को पूरी कहानी बताई। देवव्रत शीघ्र ही सत्यवती के पिता के पास चले गए। उन्होंने फिर से अपने पिता की बात दोहराई, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।

इसके बाद युवराज देवव्रत ने अपने पिता की खुशी के लिए एक भीष्म प्रतिज्ञा की। देवव्रत ने कहा कि “मैं गंगा पुत्र देवव्रत, आज वचन देता हूँ कि मैं कभी भी हस्तिनापुर के सिंहासन पर नहीं बैठूँगा।

तथा मैं हमेशा के लिए ब्रह्मचारी रहने की सौगंध खाता हूँ।” मैं अपनी माता सत्यवती के पुत्र को ही सिंहासन पर बैठाऊंगा और आजीवन इस सिंहासन की सेवा करूंगा।

इस भीष्म प्रतिज्ञा के बाद ही इनका नाम भीष्म पड़ा। राजा शांतनु को जब इस बात का पता चला तो वे बहुत दुःखी हुए। लेकिन उन्हें विश्वास था कि भीष्म कभी भी अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ेगा। हस्तिनापुर की प्रजा को जब इस बात का पता चला तो पूरे नगर में शौक की लहर दौड़ गई।

सत्यवती और शांतनु के दो पुत्र हुए, जिनके नाम विचित्रवीर्य और चित्रागंद थे। राजा शांतनु की मृत्यु के बाद विचित्रवीर्य हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। लेकिन एक दिन भीष्म की अनुपस्थिति में गंधर्वों के राजा चित्रागंद ने कुरुवंश के चित्रागंद को युद्ध के लिए ललकारा।

चित्रागंद ने युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली और वो उसके साथ युद्ध करने लगे। इस युद्ध में शांतनु पुत्र चित्रागंद की मृत्यु हो गई। भीष्म को जब इस बात का पता चला तो वे इससे बहुत दुःखी हुए। इसके बाद उन्होंने विचित्रवीर्य को राजगद्दी सौंपी।

विचित्रवीर्य अम्बिका और अंबालिका से विवाह किया। अम्बिका के गृभ से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ और अंबालिका के गृभ से पांडु का जन्म हुआ। धृतराष्ट्र बचपन से ही अंधे थे। इसलिए भीष्म ने पांडु को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठाया। लेकिन किसी कारणवश उन्हें बीच में ही अपना शासन त्यागना पड़ा।

विचित्रवीर्य और अम्बिका की एक दासी से विदुर का जन्म हुआ। जो आगे जाकर हस्तिनापुर के महामंत्री बने। धृतराष्ट्र ने गांधारी से विवाह किया।

लेकिन गांधारी ने पूरी जिंदगी आँखों पर पट्टी बाँधकर जीवन बिताने का संकल्प लिया। ताकि उनके पति को कभी अंधेपन का दुःख महसूस न हो। महाराज पांडु ने कुंती और माद्री से विवाह किया।

6. कुंती और पांडवों का जन्म

कुंती यदुवंश के राजा शूरसेन की पुत्री थी, जो श्रीकृष्ण के पितामह थे। इस तरह रिश्ते में कुंती श्रीकृष्ण की बुआ थी। एक बार की बात है ऋषि दुर्वासा कुंती के यहाँ पधारे, कुंती ने ऋषि दुर्वासा की बहुत सेवा की।

कुंती की सेवा से ऋषि बहुत खुश हुए और उसे वरदान दिया कि तुम जिस भी देव का स्मरण करोगी। तुम्हारा पुत्र वैसा ही प्रतापी और शूरवीर होगा।

एक दिन नदी में सूर्यदेव को जल अर्पित करते हुए कुंती ने नादानी से सूर्यदेव का स्मरण कर लिया। तब कुंती ने सूर्य के समान तेजस्वी बालक को जन्म दिया। बाल्यावस्था की इस भूल ने कुंती को अंदर से भयभीत कर दिया। इसलिए कुंती ने अपने बेटे को एक टोकरी में रखकर नदी में बहा दिया।

उसी दिन नदी किनारे अधिरथ नाम के व्यक्ति को एक सुंदर सा बालक दिखाई दिया। उसने शीघ्र ही उस बच्चे को उठाया और अपनी पत्नी के पास ले गया। अधिरथ ने उस बालक को पालकर बड़ा किया। जो आगे जाकर महाप्रतापी कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पांडु ने कुंती से विवाह करने के बाद, मद्रराज की पुत्री माद्री से विवाह किया। एक दिन महाराज पांडु वन में शिकार खेलने गए। तब उनके धनुष से निकला हुआ तीर दुर्भाग्यवश एक ऋषि और उनकी पत्नी को जाकर लग गया। ऋषि ने तभी क्रोध में आकर पांडु को श्राप दिया कि वो जब भी अपनी पत्नियों के साथ संभोग करेंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी।

इसके बाद पांडु अपना पूरा राज-पाट छोड़कर वन में चले गए। कुंती ने ऋषि दुर्वासा के वरदान से तीन पुत्रों युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म दिया।

तब कुंती ने वो मंत्र माद्री को भी दिया और माद्री ने नकुल और सहदेव को जन्म दिया। लेकिन एक दिन पांडु माद्री के साथ अंतरंग हो गए। जिस कारण उनकी वहीं पर मौत हो गई।

माद्री ने खुद को इसका दोषी मानते हुए, अपने आप को मृत्यु के हवाले कर दिया। कुंती अब अकेली रह गई थी। इसलिए वो अपने पांचों पुत्रों के साथ हस्तिनापुर वापिस लौट आई। अपने पौत्र की मृत्यु के बाद सत्यवती वन में चली गई और वहाँ तपस्या करती हुई स्वर्ग सिधार गई।

7. कौरवों का जन्म

धृतराष्ट्र ने जब गांधारी से विवाह किया तो गांधारी के भाई शकुनि ने उनके साथ जाने को कहा। ताकि वो अपनी बहन का ख्याल रख सके। लेकिन शकुनि के मन में एक गहरा षड्यंत्र जन्म ले रहा था। वो हस्तिनापुर को बर्बाद कर भीष्म से बदला लेना चाहते थे। क्योंकि एक बार भीष्म ने गांधार युद्ध में शकुनि को हराया था।

धृतराष्ट्र और गांधारी ने 100 पुत्रों और एक पुत्री को जन्म दिया। धृतराष्ट्र ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम दुर्योधन रखा। दुर्योधन के जन्म के समय महात्मा विदुर ने भविष्यवाणी कर दी थी कि आज से कुरुवंश का विनाश शुरू हो गया है। उनकी पुत्री का नाम दुशाला था। दुर्योधन के अलावा गांधारी के शक्तिशाली बेटे युयुत्सु और दुसाशन ने जन्म लिया।

8. दुर्योधन और भीम

हस्तिनापुर लौटने के बाद पांडव और कौरव एक साथ प्रेम और स्नेह से रहने लगे। लेकिन उनके बीच एक जहरीला नाग फिर रहा था, जो इस प्रेम और स्नेह को अपने जहर से नष्ट करना चाहता था। उस नाग का नाम शकुनि था। शकुनि कौरवों में पांडवों के प्रति जहर भरता और उनसे नफरत करने को कहता।

दुर्योधन अपने आप को हस्तिनापुर का युवराज मानता था। लेकिन सभी युधिष्ठिर को युवराज बनाना चाहते थे। भीम पांडवों में सबसे बलशाली और उदण्ड प्रवृति का होने के कारण वो अक्सर दुर्योधन के साथ उलझ जाता। फिर युधिष्ठिर भीम को समझाते और दुर्योधन से क्षमा मांगने को कहते।

धीरे-धीरे भीम दुर्योधन और कौरवों की आँखों में खटकने लगा। वो भीम को सबक सीखाने की कोशिश करने लगे। उन्होंने इसके लिए एक योजना बनाई, जिसके अनुसार वो सबसे पहले भीम को नदी किनारे ले गए।

फिर उसे भोजन में जहर दे दिया। भीम जहर खाने के बाद मूर्छित होकर गिर गया। कौरवों ने मौके का फायदा उठाते हुए भीम को नदी में फेंक दिया। लेकिन नदी में भीम नागदेवता के वरदान से बच गए और उन्हें 1000 शेषनागों का बल प्राप्त हुआ।

शुरुआत में सभी राजकुमार कृपाचार्य से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक दिन जब गुरु द्रौणाचार्य हस्तिनापुर आए तो कृपाचार्य ने उनसे सभी राजकुमारों को शिक्षा देने का आग्रह किया। द्रौणाचार्य, कृपाचार्य की बहन कृपी के पति थे और इनका एक पुत्र अश्वथामा था।

कुंती पुत्र अर्जुन गुरु द्रौण का सबसे प्रिय शिष्य बन गया। गुरु द्रौण अर्जुन को धनुर्विद्या सिखाने लगे। भीम गद्दा युद्ध में निपुण होने लगा और युधिष्ठिर भाला फेंक में सर्वश्रेष्ठता हासिल करने लगे।

एक दिन एक भील बालक एकलव्य गुरु द्रौण से शिक्षा ग्रहण करने पहुंचा। लेकिन द्रौण ने यह कहकर मना कर दिया कि वो सिर्फ राजकुमारों को शिक्षा देते है।

लेकिन एकलव्य ने गुरु की एक मूर्ति बनाकर उसके सामने धनुर्विद्या सीखने लगा। एक दिन जब गुरु द्रौण ने एकलव्य के बाणों का वेग देखा तो उन्हें लगा की अर्जुन अब सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं बन पाएगा।

इस कारण उन्होंने एकलव्य से दक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। जिसे एकलव्य ने खुशी-खुशी अपने गुरु को प्रदान कर दिया।

एक दिन भीष्म पितामह ने सभी राजकुमारों के शस्त्र विद्या के प्रदर्शन करने की योजना बनाई। जिसमें सभी राजकुमार अपने कौशल का प्रदर्शन करेंगे।

इसी प्रदर्शन स्थल पर अर्जुन और कर्ण का सामना हुआ। दुर्योधन ने मौके का फायदा उठाते हुए कर्ण को अपना मित्र बना लिया और उसे अंग प्रदेश का राजा घोषित कर दिया।

इसके बाद ही कर्ण का नाम अंगराज कर्ण पड़ा और वो दुर्योधन के घनिष्ठ मित्र बन गए। पांडवों के युद्ध कौशल को देखकर सभी कौरव उनसे जलने लगे।

इस कारण उन्होंने सभी पांडवों को एक साथ मृत्यु देने की योजना बनाई। क्योंकि दुर्योधन जानता था कि इसके बाद युधिष्ठिर ही हस्तिनापुर के सम्राट बनेंगे। इसलिए उसने सभी पांडवों को रास्ते से हटाने की योजना बनाई।

9. पांडवों को जिंदा जलाने का षड्यंत्र

पांडवों को मारने के लिए दुर्योधन, शकुनि और कर्ण ने वार्णावर्त में एक लाख के महल का निर्माण करवाया। वारणावर्त में हर वर्ष एक भव्य मेले का आयोजन होता था।

दुर्योधन ने पांडवों और कुंती को बहला-फुसलाकर इस मेले को देखने के लिए आग्रह किया। पांडव और कुंती कुछ समझ नहीं पाए और उन्होंने दुर्योधन के आग्रह को स्वीकार कर लिया।

लेकिन महात्मा विदुर को षड्यंत्र की बू आने लगी। इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को इसके लिए पहले ही सचेत कर दिया। पांडव अब वारणावर्त पहुँच गए, जहां उनका भव्य स्वागत किया गया। इधर महात्मा विदुर ने दुर्योधन के षड्यंत्र का पता लगा लिया और पांडवों तक इस समाचार को पहुंचा दिया।

पांडवों ने उस लाक्षागृह से जमीन में एक सुरंग का निर्माण करवाया जो एक नदी के किनारे तक जाती थी। एक दिन रात को सभी पांडव उस सुरंग के रास्ते जंगल में चले गए और लाक्षागृह को आग लगा दी। कुछ ही समय में पूरा महल जलकर राख़ हो गया। इस तरह महात्मा विदुर ने पांडवों के जीवन की रक्षा की।

हस्तिनापुर में जब यह सूचना पहुंची तो भीष्म पितामह, गुरु द्रौण, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, गांधारी, पूरी प्रजा शौक में डूब गई। लेकिन कौरवों के लिए यह जश्न का समय था। दुर्योधन, शकुनि, कर्ण, दुशासन सभी बिना सच को जाने जश्न मनाने लगे।

लाक्षागृह से निकलने के बाद कुंती और पाँच पांडव ब्राह्मण के भेष में रहने लगे। इस दौरान हिडिम्बा नाम की एक राक्षसनी ने भीम को जंगल में देखा।

हिडम्बा भीम के प्रेम में मोहित हो गई और उसने भीम को मन ही मन अपना पति मान लिया। जिसके बाद हिडम्बा ने कुंती से अनुरोध किया कि वो भीम से विवाह करना चाहती है। कुंती ने उन्हें विवाह करने के अनुमति दे दी। भीम और हिडम्बा ने एक बच्चे को जन्म दिया, हिडम्बा ने इस बालक का नाम घटोत्कच रखा।

10. द्रोपदी स्वयंवर और इंद्रप्रस्थ का निर्माण

इसके बाद सभी पांडव राजा द्रुपद के दरबार में पहुंचे, जहां उनकी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर था। द्रौपदी के स्वयंवर में पूरे भारतवर्ष के राजा-महाराजा, राजकुमार आए हुए थे।

पांडव ब्राह्मण भेष में ही दरबार में चले आए ताकि किसी को भी कोई शक न हो। उस दरबार में श्रीकृष्ण भी मौजूद थे। जिन्हें पांडवों के बारे में पता था।

स्वयंवर में सभी राजकुमारों को एक मछली की परछाई को देखकर आँख में निशाना लगाना था। मछली की परछाई नीचे जल में बन रही थी और वो मछली एक वृत्ताकार पथ में घूम रही थी।

जिसके लिए उन्हें दरबार में पड़े धनुष-बाण का ही उपयोग करना था। एक-एक करके सभी राजकुमार आते गए। लेकिन कोई भी राजकुमार ऐसा करने में सफल नहीं हुआ।

यह सब देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ! तुम उस मछली की आँख को भेदकर साबित कर दो कि तुम इस संसार के सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर हो।

अर्जुन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता के वचनों का मान रखा और मछली की आँख को एक क्षण में ही भेद दिया। इस तरह द्रौपदी और अर्जुन का विवाह हुआ।

पांचों पांडवों ने जब कुंती से कहा कि हम एक वस्तु लेकर आए है, तो कुंती ने बिना सोचे- समझे कह दिया कि तुम आपस में बाँट लो। फिर इस तरह द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी पांचाली कहलाई।

जब यह सूचना हस्तिनापुर पहुंची तो सब स्तब्ध रह गए। किसी को भी पांडवों के जीवित होने पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन सभी के मुख पर मुस्कान थी, सिवाय कौरवों को छोड़कर। अब तो दुर्योधन का क्रौध पांडवों के प्रति और भी बढ़ गया।

धृतराष्ट्र ने सभी से सलाह कर अपने राज्य को दो भागों में बाँट दिया। जिसमें हस्तिनापुर दुर्योधन को मिला और खांडवप्रदेश पांडवों को। पांडवों ने खांडवप्रदेश का पुनर्निर्माण करवाया और इंद्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाई।

जहां के सम्राट युधिष्ठिर बने। युधिष्ठिर को सभी धर्मराज कहते थे, उनसे अधर्म की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। अब सभी पांडव, कुंती और द्रौपदी इंद्रप्रस्थ में सुखी जीवन व्यतीत करने लगे।

11. द्रोपदी चीरहरण

एक दिन सम्राट युधिष्ठिर के दरबार में नारद मुनि पधारे, उन्होंने धर्मराज से राजसूय यज्ञ करने को कहा। जिसके लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से सलाह मांगी।

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने की अनुमति दे दी। इसी दौरान भीम ने जरासंध का वध किया। राजसूय यज्ञ की तैयारी पूरी होने के बाद सभी राजा-महाराजाओं को इंद्रप्रस्थ आने का न्यौता दिया गया।

हस्तिनापुर को भी इस यज्ञ में शामिल होने के लिए न्यौता भेजा गया। जहां से भीष्म, दुर्योधन, शकुनि, द्रौणाचार्य और अनेक महापुरुष पधारे थे। राजसूय यज्ञ में सबसे पहले एक महान इंसान का सत्कार किया जाता है। इसलिए सभी ने श्रीकृष्ण के नाम का सुझाव दिया। इसी सभा में शिशुपाल बैठा हुआ था।

जिसने श्रीकृष्ण को अपशब्द कहे। श्रीकृष्ण ने शिशुपाल के 100 पाप पूरे होते ही अपने सुदर्शन से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। यह सब देखकर सभी राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि भयभीत हो गए।

शकुनि और दुर्योधन इतने शानदार और भव्य महल को देखकर मन्नमुग्ध हो गए। महल में एक जगह भूल-भूलैया थी जिसमें दुर्योधन फंस गया। यह सब देखकर द्रौपदी को हंसी आ गई। दुर्योधन मन ही मन क्रोधित होने लगा, उसने पांडवों और द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने की योजना बनाई।

पांडवों से बदला लेने के लिए शकुनि ने दुर्योधन को चौसर का खेल आयोजन करने के लिए कहा। क्योंकि शकुनि जानता था कि उसके पास जो जादुई पासे है उससे वो कभी नहीं हार सकता। फिर दोनों चले गए महाराज धृतराष्ट्र के पास, ताकि वो इस खेल के लिए उनसे अनुमति ले सके।

धृतराष्ट्र ने विदुर को इंद्रप्रस्थ जाने के लिए कहा। विदुर को दुर्योधन की मंशा का पता चल गया और उन्होंने युधिष्ठिर से इस पर फैसला लेने को कहा। लेकिन धर्मराज युधिष्ठिर ने महाराज धृतराष्ट्र का न्यौता नहीं मोड़ा और आने के लिए तैयार हो गए। वो न्यौता मोड़कर अपने ज्येष्ठ पिताश्री का अपमान नहीं करना चाहते थे।

अब सभी पांडव हस्तिनापुर आ गए। जहां पर चौसर के खेल का आयोजन किया गया। खेल में सबसे पहले योजना अनुसार कौरवों ने हारना शुरू कर दिया ताकि पांडवों को उन पर शक न हो। लेकिन फिर बाद में शकुनि ने अपना दाव चलते हुए जीती हुई बाजी को अपने पक्ष में कर लिया।

सबसे पहले उसने युधिष्ठिर के राज-पाट को जीता, फिर एक-एक करके सभी पांडव दांव पर लगते गए। सबकुछ हार जाने के बाद युधिष्ठिर बहकावे में आकर मूर्खता दिखाने लगे और उन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया। पूरी सभा चौंक गई, सभी पांडव अपने बड़े भाई की तरफ देखने लगे। लेकिन उनकी विवशता ऐसी थी कि वो कुछ नहीं कर सकते।

दुर्योधन ने द्रौपदी को जीतकर अपने अपमान का बदला लेने की कोशिश की। इसलिए उसने दुशासन को द्रौपदी को लाने के लिए कहा। दुशासन द्रौपदी को बाल घसीटते हुए दरबार में लेकर आया। जिससे दरबार में उपस्थित सभी व्यक्ति क्रोधित हो उठे और उन्होंने दुर्योधन से कहा कि जिस द्रौपदी को तूँ यहाँ लेकर आया है वो तेरा विनाश है।

दुर्योधन, दुशासन, कर्ण, शकुनि सभी कौरवों ने द्रौपदी का भरी सभा में अपमान किया। लेकिन कोई कुछ नहीं कर सका। अंत में दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी को खींचना शुरू किया। द्रौपदी ने इसी वक्त श्रीकृष्ण को याद किया और वो साड़ी बढ़ती ही गई। अंत में दुशासन थककर नीचे गिर गया और द्रौपदी की लाज बच गई।

इसी वक्त गांधारी दरबार में पधारी और उसने सभा में मौजूद एक-एक योद्धा को इस कार्य के लिए अपमानित किया और उन्हें खरी खोटी सुनाई। इसके बाद धृतराष्ट्र ने पांडवों को खोया हुआ राजपाट वापिस करने का निर्णय लिया। धृतराष्ट्र अब मन ही मन अपने पुत्र प्रेम के लिए पछतावा करने लगे।

12. पांडवों का वनवास और अज्ञातवास

लेकिन दुर्योधन इस तरह जीती हुई बाजी को हारना नहीं चाहता था। इसलिए उसने सभी पांडवों और द्रौपदी को 12 वर्ष वनवास और 1 वर्ष अज्ञातवास में जाने की मांग कि। इसलिए उसने एक बार फिर से चौसर का खेल खेला। जिसमें पांडव हार गए और वो 13 वर्ष के लिए वन में चले गए।

वन में सभी पांडव अब अपने अपमान का बदला लेने के लिए योजना बनाने लगे। भीम अब अपने आप को और बलशाली बनाने लगे। अर्जुन ने घोर तपस्या कर देवताओं से अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त किए।

इस दौरान भीम और हनुमान जी की मुलाक़ात हुई। साथ ही इसी समय में पांडवों की यक्ष से सामना हुआ, जिनके प्रश्नों का युधिष्ठिर ने सही-सही उत्तर दिये।

इस तरह पांडवों के वन में 12 वर्ष बीत गए। दुर्योधन के सैनिक पांडवों पर नजर रख रहे थे ताकि वो उनको अज्ञातवास के समय में पकड़ ले और पांडव वापिस 12 वर्ष के लिए वनवास चले जाए।

अब उनका आखिरी वर्ष अज्ञातवास का था। जिसे उन्हें सब से अज्ञात रहकर बिताना था। श्रीकृष्ण ने उन्हें पहले ही अज्ञातवास को बिताने का स्थान बता दिया था।

13. अज्ञातवास का अंत और युद्ध की घोषणा

श्रीकृष्ण के कहे अनुसार अब सभी पांडवों और द्रौपदी को विराटनगर में जाना था जहां राजा विराट का शासन था। उन सभी को वहाँ भेष बदलकर रहना था ताकि कोई भी उन्हें पहचान न सके और वो अज्ञातवास का 1 वर्ष निकाल दे। महल में वो अलग-अलग पद पर कार्य करने लगे।

युधिष्ठिर महाराजा विराट के साथ चौपड़ खेलने वाले सेवक बने और उन्होंने अपना नाम “कंक” रखा। भीम “वल्लभ” के नाम से रसोईया बने। अर्जुन स्त्री के भेष में “बृहन्नला” बने और वो महल में दसियों और विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य सीखाने लगे।

नकुल अस्तबल में “ग्रंथिक” बनकर घोड़ो की सेवा करने लगा और सहदेव “तंतिपाल” के नाम से बैलों की देखभाल करने लगा। वहीं द्रौपदी दासी “सैरंध्री” बनकर महारानी सुदेष्णा के साथ रहने लगी। एक दिन महारानी के भाई “किचक” ने द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार किया। तो द्रौपदी ने यह बात भीम को बताई।

भीम को जब इस बात का पता चला तो उसने किचक को दूसरी जगह बुलाया। जहां उसने किचक को युद्ध के लिए ललकारा और दोनों में भीषण युद्ध हुआ। किचक भी काफी बलशाली था। उसने भीम को एक योद्धा की तरह टक्कर दी। अंत में भीम ने अपने बल से किचक का वहीं वध कर दिया।

अब दुर्योधन के सैनिक भी पांडवों की तलाश रहे थे, लेकिन उन्हें उनका कोई सबूत नहीं मिला। एक दिन किसी गुप्तचर ने दुर्योधन से पांडवों के विराटनगर में होने पर संदेह जताया। दुर्योधन जानता था कि राजा विराट उसकी कोई बात नहीं मानेंगे। इसलिए उसने विराटनगर पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

हस्तिनापुर की विशाल सेना अपने महान और बलशाली योद्धाओं के साथ विराटनगर पर आक्रमण करने के लिए निकल पड़ी। उधर महल में कोई भी योद्धा नहीं था इसलिए राजा विराट ने अपने पुत्र उत्तर को युद्ध में भेजने की सलाह की। फिर उन्होंने युधिष्ठिर यानी कंक के कहने पर अर्जुन को राजकुमार उत्तर के साथ भेजने की योजना बनाई।

इधर पांडवों का अज्ञातवास पूरा हो चुका था इसलिए अर्जुन ने कौरवों के साथ भीषण युद्ध किया जिसमें सभी कौरव हार गए और हस्तिनापुर वापिस लौट गए। जैसे ही राजा विराट को इस बारे में पता चला तो उन्हें इस बात का बहुत दुःख हुआ। विराट ने धर्मराज युधिष्ठिर से अपने बर्ताव के लिए माफी मांगी।

अब पांडव युद्ध की तैयारी करने लगे। उन्होंने सभी राजा-महाराजाओं को युद्ध में पांडवों का साथ देने के लिए निमंत्रण भेजा। इसी क्रम में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से स्वयं जाकर सहायता मांगने का विचार किया। वो श्रीकृष्ण के पास द्वारिका चले गए जहां दुर्योधन पहले से ही मौजूद था।
श्रीकृष्ण ने दोनों के सामने दो प्रस्ताव रखे।

पहले प्रस्ताव में वो अपनी नारायणी सेना को युद्ध में भेजने की बात कही और दूसरे प्रस्ताव में वो खुद सारथी के रूप में युद्ध में शामिल होंगे। साथ ही वो युद्ध में कोई अस्त्र नहीं उठाएंगे। दुर्योधन ने लालच में आकार और बिना श्रीकृष्ण की शक्ति को जाने, नारायणी सेना को मांग लिया।

अब श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी के रूप में युद्ध में विचरण करेंगे। लेकिन धर्मराज ने शांति संधि के लिए प्रयत्न किया। इसके लिए उन्होंने श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर भेजने की बात कही। श्रीकृष्ण भी हस्तिनापुर जाने के लिए तैयार हो गए।

हस्तिनापुर जाकर श्रीकृष्ण ने कौरवों को पांडवों से संधि करने का सुझाव दिया। लेकिन दुर्योधन ने अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुए, श्रीकृष्ण का अपमान किया।

दुर्योधन ने कर्ण से कहा कि वो श्रीकृष्ण को बंदी बना ले। जैसे ही कर्ण आगे बढ़ा, श्रीकृष्ण अपने विराट रूप में आ गए। इस रूप को देखकर कौरव भयभीत हो गए और श्रीकृष्ण वहाँ से चले गए।

अब युद्ध को कोई नहीं टाल सकता था। श्रीकृष्ण का इस तरह अपमान करने पर कौरवों ने पांडवों को और अधिक क्रोधित कर दिया। इसी बीच कर्ण को पता चला कि वो कुंती पुत्र है और पांडव उसके भाई है। कर्ण पूरी तरह से टूट गया लेकिन उसने अपनी माता को वचन दिया कि वो युद्ध में अर्जुन को छोड़कर किसी भी पांडव का वध नहीं करेगा।

इधर युद्ध की तैयारियां जोरों-शोरों पर थी। युद्ध के नियम तैयार कर लिए गए। पांडवों और कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक योद्धा थे। जिसमें कौरवों की तरफ से भीष्म पितामह, गुरु द्रौणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, जयद्रथ, दुर्योधन आदि थे। पांडवों की तरफ खुद पांडव, विराट, द्रुपद, सात्यिक आदि योद्धा शामिल थे।

धीरे-धीरे युद्ध की तैयारियां पूरी हो गई और एक दिन ऐसा आया जब दोनों सेनाएँ कुरुक्षेत्र के रण में आमने-सामने थी। इधर महर्षि व्यास ने धृतराष्ट्र के सारथी संजय को दिव्यदृष्टि दी।

ताकि संजय कुरुक्षेत्र के इस युद्ध में हुए नरसंहार की आंखो-देखि धृतराष्ट्र को सुना सके। इस युद्ध के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हस्तिनापुर नरेश ही थे।

14. भगवद्गीता का ज्ञान

जब अर्जुन ने युद्ध क्षेत्र में अपने ही सगे संबधियों को देखा तो उसका मन विचलित हो गया। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो इस युद्ध को नहीं लड़ सकते। अगर हम जीत भी गए तो हार भी हमारी ही होगी। हम सभी एक ही पेड़ की टहनियाँ है। अगर इनमें से एक भी टहनी टूटी तो पीड़ा पूरे पेड़ को होगी।

मैं अपने पितामह, गुरु, भाइयों का कैसे वध करूँ। अर्जुन का मन व्याकुल होने लगा और गांडीव हाथ से सरकने लगा। अर्जुन अपने आंसुओं को रोक नहीं पा रहा था। वो बार-बार श्रीकृष्ण से उसकी यह व्याकुलता दूर करने को कह रहा था।

श्रीकृष्ण ने धीरे-धीरे अर्जुन को समझाया और कहा कि हे पार्थ! तुम बिना हिचके युद्ध करो। तुम एक क्षत्रिय हो तुम्हारे लिए युद्ध से बड़ा कोई धर्म नहीं है। एक बात तुम याद रखो धर्म और अधर्म के इस युद्ध में तुम धर्म का साथ दे रहे हो।

इतिहास तुम्हारे पराक्रम और शौर्य का सदा ऋणी रहेगा। धर्म की इस लड़ाई में तुम पांडव आज अपना सबकुछ बलिदान कर रहे हो। अगर इस समय तुम पीछे हटे तो आगे आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हें कायर के नाम से पहचानेगी।

और इस तरह से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का सार सुनाया। जिसमें बताया कि इस संसार में मोह मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। हम सिर्फ इस लोक में कर्म करने के लिए आए है। यहाँ कोई रिश्ता-नाता नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक इंसान समस्याओं के बेड़ियों में बंधा होता है। जिससे निकलने का एक मात्र रास्ता भक्ति ही है।

मनुष्य जन्म लेता है और फिर मर जाता है। लेकिन आत्मा एक ऐसी शक्ति है जो कभी नहीं मरती। आत्मा को न कोई अस्त्र काट सकता, न वो आग में जल सकती, न उसे जल में भिगो सकते, आत्मा तो अमर है। इसलिए हमें कभी भी व्यर्थ की चिंता नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस युद्ध की महत्वता बताई। अर्जुन इस ज्ञान रूपी समुन्द्र में डुबकी लगाने के बाद युद्ध के लिए तैयार हो गया। धर्म को विजय दिलाना अब अर्जुन का लक्ष्य था। जिसके लिए वो किसी का भी वध करने के लिए तैयार था। उसे असल ज्ञान मालूम हो गया।

15. महाभारत का भीषण युद्ध

गीता का उपदेश होने खत्म होने के बाद अब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार थी। युधिष्ठिर ने युद्ध की घोषणा होने से पहले अपने अस्त्र-शस्त्र उतार दिये और वो युद्ध क्षेत्र में दोनों सेनाओं के बीच चले गए। अब सभी समझने लगे की शायद धर्मराज आत्मसमर्पण कर रहे है।

लेकिन धर्मराज इसके विपरीत कौरवों में मौजूद सभी महान पुरुषों से आशीर्वाद लेने के लिए आए थे। वो इस युद्ध को बड़ों के आशीर्वाद से जीतना चाहते थे।

एक-एक करके सभी ने युधिष्ठिर को विजय होने का आशीर्वाद दिया। जिससे दुर्योधन और अधिक क्रोधित हो गए। लेकिन युधिष्ठिर अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे।

इस तरह पहले दिन का युद्ध शुरू हुआ। जिसमें भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना में हाहाकार मचा दिया। पहले दिन का युद्ध खत्म होते-होते पांडव सेना तिनके की तरह बिखर गई।

जिससे पूरे पांडव पक्ष का मनोबल गिर गया। लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस युद्ध में जीत उनकी ही होगी। दूसरे दिन के युद्ध में पांडवों ने व्यूह की रचना कर कौरव सेना को काफी क्षति पहुंचाई।

लेकिन उनके रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट भीष्म पितामह थे। इसलिए अर्जुन ने लंबे वक्त तक पितामह के साथ युद्ध किया। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।

तीसरे दिन भी ऐसा ही चलता रहा, इधर भीष्म पांडव सेना के लिए काल बन रहे थे और उधर अर्जुन कौरव सेना के लिए काल बन रहा था। लेकिन अर्जुन पितामह से युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था।

इसलिए कृष्ण ने क्रोधित होकर अपने सुदर्शन को याद किया। अर्जुन यह सब देखकर डर गया, उसे लगा कि अब उसकी वजह से कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा तोड़ रहे है।

अर्जुन भागता हुआ श्रीकृष्ण के मार्ग में खड़ा हो गया और युद्ध करने के लिए राजी हो गया। अर्जुन अब पूरी तरह से उत्तेजित हो गया और उसने कौरव सेना पर एक से बढ़कर एक हमले किए।

शाम तक कौरव सेना पूरी तरह से हताश हो गई और अपने शिविर को लौट आई। चौथे दिन का युद्ध कौरवों और भीष्म का रहा। इस दिन भीम ने दुर्योधन के 8 भाइयों को मौत के घाट उतार दिया।

पांचवे दिन भी ऐसा ही सिलसिला चलता रहा। चारों और एक से बढ़कर एक भंयकर अस्त्र चल रहे थे। कुरुक्षेत्र की धरती लहूलुहान हो चुकी थी।

छठे, सातवें और आठवें दिन ऐसा ही चलता रहा। हर तरफ बस मृत शरीर ही नजर आ रहे थे। उधर भीम धीरे-धीरे दुर्योधन के बाकी भाइयों को मौत के घाट उतार रहा था।

नौवें दिन भी ऐसा ही चलता रहा। अब ऐसा लग रहा था भीष्म पितामह के होते यह युद्ध कभी खत्म नहीं होगा। इसलिए पांडवों ने भीष्म पितामह से मिलकर उनके विजय होने का आशीर्वाद वापिस लेने को कहा। लेकिन भीष्म ने अपने वध का एक रहस्य बताया।

अगले दिन युद्ध में पांडवों ने पितामह के सामने शिखंडी को खड़ा कर दिया। पितामह ने एक नारी पर कभी भी शस्त्र नहीं चलाने का प्रण लिया था। श्रीकृष्ण जानते थे कि भीष्म का वध करने के लिए इससे उचित अवसर नहीं हो सकता।

इसलिए उन्होंने अर्जुन को भीष्म का वध करने के लिए कहा। अर्जुन ने कुछ ही क्षणों में भीष्म के पूरे शरीर को बाणों से छलनी कर दिया। इस तरह से भीष्म बाणों की सइयाँ पर लेट गए।

ग्यारहवें दिन द्रौणाचार्य ने कौरव सेना की कमान संभाली। अब कर्ण भी युद्ध क्षेत्र में आ चुके थे। इस तरह ग्यारहवाँ दिन भी बीत गया। अब तक इस युद्ध में बहुत से बलशाली योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी।

बारहवें दिन कौरवों ने युधिष्ठिर को पकड़ने की सलाह बनाई ताकि वो पांडव सेना को अस्त्र रखने पर मजबूर कर दे। लेकिन वो अपनी मंशा में कामयाब नहीं हो पाए और उन्हें इस दिन बहुत आघात झेलना पड़ा।

तेरहवें दिन गुरु द्रौणाचार्य ने चक्रव्युह की रचना की। योजना के अनुसार कौरव अर्जुन को युद्ध भूमि के एक कोने पर ले गए। क्योंकि अर्जुन पांडवों में एक मात्र योद्धा था जिसे चक्रव्युह का तोड़ मालूम था। इधर पांडव इसको देखकर भयभीत हो गए। लेकिन अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ने इस चक्रव्यूह को तोड़ने की हिम्मत की।

अभिमन्यु किसी तरह चक्रव्युह तोड़ने में तो कामयाब हो गया लेकिन कौरवों ने धोखे से अभिमन्यु का वध कर दिया। अर्जुन को जब इसका पता चला तो वो अपने वीर पुत्र के साहस पर गर्व करने लगा। लेकिन अर्जुन ने कौरवों को इस छल का दंड देने के लिए प्रतिज्ञा ली।

चौदहवें दिन अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया। इधर भीम पुत्र घटोत्कच भी वीरगति को प्राप्त हो गया।युद्ध के पंद्रहवें दिन पांडवों ने अश्वत्थामा के वध की झूठी खबर फैलाकर द्रौणाचार्य का वध कर दिया।

जिसके लिए उन्होंने धृष्टद्युम्न को इस कार्य के लिए चुना। क्योंकि आचार्य द्रौण धृष्टद्युम्न के पिता को मारा था। अश्वत्थामा यह सब सुनकर क्रोधित हो गया और उसने सभी पांडवों को यमलोक पहुंचाने का प्रण लिया।

16वें दिन कर्ण को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया। वो इस दिन बहुत बहदुरी से लड़ा। इधर भीम ने दुशासन का वध किया और उसके रक्त से द्रौपदी के बाल धोए।

17वें दिन कर्ण का सामना सभी पांडवों से हुआ, लेकिन कर्ण ने अपनी माता को दिए हुए वचन के अनुसार किसी भी पांडव का वध नहीं किया। फिर उसका सामना अर्जुन से हुआ। अर्जुन ने अपने साहस और पराक्रम से कर्ण का वध कर दिया। कर्ण की बहादुरी के लिए श्रीकृष्ण हमेशा उसकी प्रशंसा करते थे।

अब कौरव सेना के लगभग सभी योद्धा मारे गए। 18वें दिन शकुनि और शल्य का अंत हुआ। दुर्योधन को भीम ने गद्दा युद्ध में बुरी तरह घायल कर दिया और वो नदी किनारे तड़पता रहा। शकुनि को सहदेव ने यमलोक का मार्ग प्रदान किया।

अब कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा किसी तरह पांडवों से बचकर दुर्योधन से मिलने पहुंचे। वहाँ उन्होंने अपने युवराज को इस हालत में देखा तो वो व्याकुल हो उठे।

उन्होंने इसी रात धोखे से पांडवों के सभी पुत्रों का वध कर दिया और अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने इस युद्ध के खत्म होने की घोषणा की और अश्वत्थामा को श्राप दिया कि वो युगों-युगों तक इस धरती पर भटकता रहेगा। उसे कभी मौत नहीं आएगी।

इस तरह धर्म और अधर्म के इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण और पांडवों ने धर्म की रक्षा की। जिसके बाद सदियों तक इस महायुद्ध में हुए विनाश की भरपाई नहीं हुई।

पूरा भारतवर्ष इस युद्ध में शामिल हुआ जिसमें हर राज्य के राजा-महाराजा शामिल हुए। आज भी कुरुक्षेत्र की लाल मिट्टी इस युद्ध की सत्यता को दिखाती है। इतिहास में ऐसा नरसंहार न तो कभी हुआ था और न शायद कभी होगा।

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निष्कर्ष:

तो ये थी महाभारत की पूरी कहानी हिंदी में, हम उम्मीद करते है की महाभारत की ये स्टोरी पढ़कर आपको बहुत अच्छा लगा होगा और आपको महाभारत के बारे में पूरी जानकारी मिल गयी होगी|

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